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उपन्यास

अथ मूषक उवाच

सुधाकर अदीब

अनुक्रम पंद्रह पीछे    

मैं रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलता गया। कुछ दूर पर रोशनी का एक गोदाम-सा दिखाई दिया। मैं उसी ओर बढ़ता गया। निकट पहुँचकर देखा। वह रेलवे स्टेशन था। प्लेटफार्म नंबर दो पर लगी बत्तियाँ ऊँघ रही थीं। प्लेटफार्म नंबर एक गुलजार शाह का मेला था। प्लेटफार्म नंबर दो भूतों का डेरा था।

इस चहल-पहल-भरे प्लेटफार्म पर किसी ट्रेन की प्रतीक्षा चल रही थी। पूरी-सब्जी का ठेलेवाला पूरियाँ छान रहा था। लाल कमीज वाले बिल्लाधारी कुली यात्रियों का सामान प्लेटफार्म पर उतारकर दाएँ-बाएँ खड़े थे। यात्रीगण बार-बार रेलवे लाइन की ओर झुककर पूर्व दिशा से आने वाली ट्रेन की पहली झलक लेने की फिराक में थे। सिगनल हो चुका था।

थोड़ी देर में ट्रेन भी आ गई। एक बूढ़ा आदमी एक छोटी-सी प्लास्टिक की कंडिया हाथ में लटकाए खंबे के पास खड़ा था। ट्रेन के रुकते ही उसने भी भीड़ के साथ एक डिब्बे में चढ़ने का प्रयास किया, लेकिन डिब्बे से उतरने वाले लोगों की झोंक में ढकिलकर वह फिर उसी स्थान पर आ गया जहाँ से चला था। उसने फिर डिब्बे में चढ़ने का प्रयास किया। इस बार वह गिरते-गिरते बचा। आखिर में पीछे हट गया। शायद उसने यह फैसला कर लिया था कि और सभी के चढ़ जाने के बाद ही वह ट्रेन में चढ़ेगा।

वह एक खाली हो चुकी बेंच पर बैठ गया। उसने अपनी कंडिया जमीन पर रख दी। कंडिया में मुझे, चौकोर खानों के बीच से, एक छोटे से टिफिनदान का आभास मिला। अब तो एक पंथ दो काज। मैं बूढ़े की नजर बचाकर उस कंडिया में घुस गया। कुछ ही क्षणों बाद जब बूढ़ा अनारक्षित 'कंपार्टमेंट' में घुसा तो मैं भी उसके साथ-साथ ट्रेन में आयातित हो चुका था।

कंपार्टमेंट खचाखच भरा था। उसमें एक दूसरे किस्म का हिंदुस्तान समाया हुआ था। बंगाली, बिहारी, पंजाबी, यू.पी. वाले और सभी तो। सब एक-दूसरे से सटे हुए थे, लेकिन एक-दूसरे से अजनबी थे। अपनी-अपनी मंजिलों और अपनी-अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति में चिंतित। उस दमघोट माहौल में कोई किसी को मुँह लगाने को तैयार नहीं था।

एक बर्थ पर एक स्त्री लेटी थी। वह दर्द से हौले-हौले कराह रही थी। एक व्यक्ति उसके पैताने बैठा एक छोटी-सी लड़की को एक फ्लास्क में से पानी पिला रहा था। उस बर्थ के सामने वाली बर्थ पर छह आदमी एक-दूसरे से सटकर बैठे थे। दो आदमी बीच की खाली जगह में और कई आदमी उस जनरल कंपार्टमेंट की साइड गैलरी में खड़े थे। ऊपर की बर्थों पर भी कई आदमी बैठे थे। पूरे डिब्बे का यही हाल था। ठसाठस कंपार्टमेंट। घुटन और पसीने की बदबू।

मेरे साथ का बूढ़ा भी किसी तरह वहाँ घुसकर खड़ा हो गया। बिटिया को पानी पिलाकर उस व्यक्ति ने थोड़ी जगह बूढ़े के लिए भी बनाई और उसे बैठ जाने का संकेत किया। बूढ़ा कोने पर टिककर बैठ गया। उसने कंडिया अपने टाँगों के पास बर्थ के नीचे रख ली। खिड़की के बाहर प्लेटफॉर्म की ओर से पान-बीड़ी-सिगरेट और चाय बेचने वालों की आवाजें आ रही थीं।

एक झटका लगा और ट्रेन चल दी। उसी समय भागते हुए चार नौजवान उस डिब्बे में चढ़े। अपने बाहुबल के मद में चूर जब वे चारों इस तरफ पहुँचे तो सबसे आगे वाला नौजवान बर्थ पर लेटी उस स्त्री को देखकर उस व्यक्ति से कहने लगा - 'ए लाट सा'ब, उठो।... अपनी औरत को उठाओ।'

इस पर उस व्यक्ति ने विनम्रता से कहा - ''भाई जी! मेरी औरत बीमार है। इसे बहुत तेज बुखार है।... हम लोग बड़ी दूर से आए है। अयोध्या गए थे। श्रीराम-जनमभूमि का दर्शन करने। अब वापस जाते हैं।''

''बेकार की बात मत करो। उठाओ उसे'' - वह नौजवान दबंगई से कहने लगा - ''यह सीट किसी के बाप की नहीं है।''

''बापू, ये लोग कौन हैं?'' छोटी लड़की ने मासूमियत से पिता से पूछा।

''चुप!'' भयभीत होते उस व्यक्ति ने अपनी लड़की को उँगली का इशारा किया। उसने अपनी स्त्री को उठाकर बैठा दिया और लड़की को उसके बराबर में बैठाकर स्वयं खड़ा हो गया। उन चार नौजवानों में से तीन परस्पर सटकर बैठ गए। एक खड़ा रहा। ट्रेन ने गति पकड़ ली।

खड़े हुए नौजवान को उसके तीनों साथी दाँत चमकाकर चिढ़ाने लगे। वह चौथा नौजवान कुछ देर तक तो सहता रहा। फिर वह भी धम्म से बूढ़े के बराबर में धँसकर बैठ गया। बूढ़ा तो पहले ही बर्थ के कोने पर टिका बैठा था। इन लोगों की धृष्टता पर उसे भी उठ खड़ा होना पड़ा।

अब उस छोटी लड़की का पिता और उस स्त्री का पति पहली बार बोला - ''हमारे गुजरात में तो ऐसा नहीं होता।''

एक नौजवान ने यह सुना। उसने दूसरे से कहा। दूसरे ने उस व्यक्ति से पूछा - ''तुम गुजरात से आए हो? गुजरात में कहाँ से?''

वह व्यक्ति कुछ न बोला। बीमार स्त्री थोड़ा खाँसी। इस पर नौजवान से रहा न गया। उसने मुड़कर उस छोटी लड़की से पूछा - ''सुनो... तुम लोग गुजरात में कहाँ रहते हो?''

लड़की कुछ न बोली। बस, टुकुर-टुकुर ताकती रही। लेकिन इस बार उसकी रोगिणी माँ ने धीरे से जवाब दिया - ''सूरत में।'' उसके बाद वह बुरी तरह खाँसने लगी।

सूरत का नाम सुनते ही वे चारों नौजवान उछलकर बर्थ पर से खड़े हो गए। सामने की बर्थ पर बैठे लोगों में से भी कुछ लोग खड़े हुए और एक-एक करके वहाँ से खिसकने लगे।

यह देखकर सहसा मुझे याद आया कि कुछ महीने पहले जब मैं लखनऊ में था, उन दिनों गुजरात के सूरत में फैले प्लेग की चर्चा बड़े जोरों पर थी। लगता है, उन अफवाहों को अभी भी लोग भूले नहीं थे। प्लेग के कारण सूरत से पलायन करने वालों की रोकथाम के भी उन दिनों विशेष प्रयत्न हुए थे। यह याद आते ही मुझे एक मनोविनोद सूझा। चूहे तो वैसे ही प्लेग फैलाने के लिए बदनाम हैं। अतः मैं झट से बूढ़े आदमी की कंडिया से निकलकर एक यात्री की पैंट पर चढ़ गया। वहाँ से सर्र से मैं एक दूसरे यात्री की बाँह पर चढ़ गया। उस यात्री ने अपनी बाँह को एक झटका दिया तो मैं 'चीं-चीं-चीं' की आवाज निकालता हुए एक तीसरे यात्री पर कूदा। तब मुझ चूहे को देखकर वहाँ कई लोगों के कंठ से एक साथ चीखें निकल पड़ीं। लोग कंपार्टमेंट के उस हिस्से से दूसरे हिस्सों की ओर भागे।

इस तरह देखते ही देखते आमने-सामने की वह दो बर्थें खाली हो गईं। और वहाँ पर शेष रह गया वह गुजराती परिवार तथा मैं यू.पी. का मूषक। ऊपर की बर्थो के मुसाफिर भी उसी चक्कर में रफू चक्कर हो गए।

बीमार स्त्री फिर से उसी बर्थ पर लेट गई। उसका पति अपनी प्यारी-सी बिटिया के साथ सामने वाली बर्थ पर आराम से लेट गया। इधर मैं अपनी आगे की यात्रा के बारे में विचार करता हुआ उस पूरी ट्रेन के फर्श पर यत्र-तत्र विचरण करने लगा।

जीवन कितना रहस्यमय है - इस रहस्य को जानने की मनुष्य जितनी कोशिश करता है, काल की गति उसकी समझ और ग्राह्यक्षमता से और भी तीव्र होने के कारण बहुत कुछ जाना-बूझा पीछे छोड़कर उसको कुछ और अंवेषण करने में भटका देती है। एक स्तर पर पहुँचकर जब वह यह समझने लगता है कि उसने बहुत कुछ जान लिया है तो जीवन के और भी नए अनुभव यह जताने लगते हैं कि अभी उसने कुछ भी नहीं जाना है।

बहुत कुछ देखा-सुना काल के थपेड़ों के साथ-साथ विस्मृत भी होता चलता है। इस जीवन को समझने के लिए एक नहीं कई जन्म चाहिए। और फिर, मूषक-योनि की तो अपनी अलग ही सीमाएँ हैं।

यह रेलगाड़ी यदि हरिद्वार पहुँची तो वहाँ से मैं तपस्या के लिए हिमालय की कंदराओं की ओर निकल जाऊँगा। मेरी तपस्या से यदि इस चराचर जगत की माता प्रसन्न हुईं तो मैं उनसे यही वर माँगूँगा कि अगले जन्म में वह मुझे पुनः मनुष्य-योनि प्रदान करें। मैं अपने देश के लिए कुछ करना चाहता हूँ। मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।

न मोक्षस्याकांक्षा भवविभववांछापि च न मे
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।

 


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